यूँ तो कब के भुला देते हम अकेलेपन के दर्द को
ग़र वो मासूमियत से अक्सर हमारी खैरियत ना पूछते
बेरुमानी होकर वो हमारी शायरी सुन बैठे
दाद दर असल तो उनके अश्क़ दे गए
फ़ौकीयत तो अलफ़ाज़ को दी मुशायरे में
वो तन्हाई में कुछ ख़ामोश आह दे गए
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