Tuesday, 31 January 2023

अलग अलग ऊंचाई

 अलग अलग ऊंचाई 


नेपथ्य में सूरज था 

उसके रश्मि शर थे 

मेरी तरकश में 

और मेरी परछाई का कद 

मुझसे भी बड़ा हो गया 

तब जाके मैं “सदैव धावक “

कुछ क्षण के लिए 

सांस लेने को 

ऊपर जाती चोटी 

के नीचे खड़ा हो गया.

फ़िर ख्याल आया 

कि मैं रुक कैसे गया 

नदी भेजती चोटी 

के तले झुक कैसे गया.

इन भीगी बाहों को ही पकड़ना है 

अपने भीतर भागते धावक को 

मन और तन से जकड़ना है 

इस सर्वोपरि नभ का भी कोई व्योम होगा 

वहां कैसी धूप होगी, कैसी शाम होगी.

बहुत दिन हुए कोई सांझ देखे हुए 

तेरे संग ज़मीन पे चले हुए ज़िन्दगी, खैर!

वो भी जीवन था 

जब हम मेहज़ हम थे,

और वो भी अहम् था 

किसी बुलबुले में क़ैद सांस को ढूँढ़ते 

हमने समुन्द्र के तट पे ही 

उसकी आँखों में ही कई सतरंगी सपने देखे 

बिना किसी संघर्ष नाद के,

 रेत के सिरहाने पर सर रखकर 

हर शंख में पताल के समुन्द्र को सुना 

आसमान और पताल के बीच 

कहीं किसी तट पर सिर्फ स्थिर रहकर 

गन्तव्य सिर्फ हम ही थे 

हमें कहीं जाना नहीं था 

सिर्फ खुली हवा की कश्ती 

मुठ्ठी भर मस्ती 

ना गहराई का भय 

क्यूंकि वो तो रत्न जड़ित थी 

ना ऊंचाई की मेहत्वकांक्षा 

तारे, चाँद और सूरज तो 

हर जगह से दिखते थे 

छोटे मोटे ख्वाब 

और छोटे मोटे हम.

No comments:

Post a Comment