1. संघर्ष
नेपथ्य में सूरज था
उसके रश्मि शर थे
मेरी तरकश में
और मेरी परछाई का कद
मुझसे भी बड़ा हो गया
तब जाके मैं “सदैव धावक “
कुछ क्षण के लिए
सांस लेने को
ऊपर जाती चोटी
के नीचे खड़ा हो गया.
फ़िर ख्याल आया
कि मैं रुक कैसे गया
नदी भेजती चोटी
के तले झुक कैसे गया.
इन भीगी बाहों को ही पकड़ना है
अपने भीतर भागते धावक को
मन और तन से जकड़ना है
इस सर्वोपरि नभ का भी कोई व्योम होगा
वहां कैसी धूप होगी, कैसी शाम होगी.
बहुत दिन हुए कोई सांझ देखे हुए
तेरे संग ज़मीन पे चले हुए ज़िन्दगी, खैर!
वो भी जीवन था
जब हम मेहज़ हम थे,
और वो भी बहुत था, हम ही अहम् था
किसी बुलबुले में क़ैद सांस को ढूँढ़ते
हमने समुन्द्र के तट पे ही
उसकी आँखों में ही कई सतरंगी सपने देखे
बिना किसी संघर्ष नाद के,
रेत के सिरहाने पर सर रखकर
हर शंख में पाताल के समुन्द्र को सुना
आसमान और पाताल के बीच
कहीं किसी तट पर सिर्फ स्थिर रहकर
अरे हाँ! गन्तव्य तो सिर्फ हम ही थे
और हमें कहीं नहीं जाना था.
सिर्फ खुली हवा की कश्ती
मुठ्ठी भर मस्ती
ना गहराई का भय
वैसे वो भी रत्न जड़ित थी
ना ऊंचाई की मेहत्वकांक्षा
तारे, चाँद और सूरज तो
हर जगह से दिखते थे
छोटे मोटे ख्वाब
और छोटे मोटे हम.
2. खेद
( विपरीत तुक बंदी )
गुम है मन का मछुआरा किसी मरुस्थल में
लहर है रेत की,कश्ती की चाह बटोरता इक बुलबुला भर पर
तुम सतह से तो स्वर्णिम धूप के प्रतिबिम्ब हो
पर सहर से निशा तक गहराई में तक सिर्फ तर.
मोती है गहरे,आँखों से रिस्ते निरंतर मन ही मन
खीँचता चिंता का हल माथे पर शिकन और सींचता
होती है फ़िर दर्द की बेरहम तिल तिल बुआई
भींचता दिन और रात को भागता हुआ समय आंख मीँचता.
3. न्याय
ज्वार भाटा है अब सांझ में उफान पर
तुम बस कश्ती को मेरे तट पर ले आओ
ऊंचा था सूरज जो वो देखो डूबने वाला है
अब तक हाशिये पर छिपी श्वेत बुज़ुर्गीयत
अब ये झुर्रियाँ भरती चांदनी बन के बिखरने को है
किसी छोर पर प्रभामण्डल का पतन है
किसी छोर पर रूपहली गठरी खुल गयी है
रात की चादर में फ़िर कोई ना ऊँचा दिखा
सब क़ब्र एक ही रूह हुई
अलग अलग ऊंचाई समझी थी जो
वो समतल ही महसूस हुई
11.2.23
15.54 hrs
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