Saturday, 25 February 2023

Drowned on ground

 


 

When the eventual end

Will resolve a listless life

The door to a frozen time

Leads to infinite nothingness

The round knob that glittered

Now pales into a ruby studded

The door is strangely ajar

The sand below my feet turns dark

Till it dampens soul with a wave

There is little to choose amidst

The dry sand and the wet sea

I push the door with my last breath

And take a plunge towards eternity

The gushing water halts the breath

Chokes , stifles , suffocates and stifles

An instant to end a lifelong

As drop by drop the breath is  replaced

One thought of the golden knob

The glitter and the basking sand

When it was a beautiful world

A shred of fragmented last breath

Closes the door ..within

The man knocks from inside

On the walls of a known “I”

That has been so long preserved

Once the time is frozen and breath broken

The knock fades amidst stony waves

The knob gets locked eternally

Once we get drowned on ground

 

 

Which side is an outside

And which one within

To the one you can see through

It does not really matter

For some lead an insipid life

While those who fail to fade

Whether alive or dead

Ablaze to flicker

Those who never drown

Are the ones who walk on sea.

 

2045

19.38 hrs

25.2.23

Delhi

 

 

Sunday, 19 February 2023

 

जीवनार्थ का ज्ञान

तब हुआ जब

अर्थी की पहचान

जीवित भीड़ से हुई.

एक गलत लाश पर अफ़सोस

करते हुए दिखा

की भीड़ अजनबी थी

बगल वाली लाश

कुछ पहचानी लगी

भीड़ भी देखी हुई सी थी.

घड़ी, फ़ोन और बातचीत में गुम

कोई चिंता में कोई मस्ती में

किसी को जल्दी लौटना था

पर लाश सी कोई ना बोला

ना जाने वो रुदन वो स्यापे

कहाँ खो गए हैँ

लोग बहुत अब रोते नहीं हैं

दुख सिर्फ RIP🙏 बन गया है

पता नहीं लाश गलत होती हैँ

या फ़िर ये दुनिया

जिसे हम जीवन कहते है

पहचान लाश की नहीं

लोगों की होती है

जब किसी की माँ जलती है.

Saturday, 11 February 2023

अलग अलग ऊंचाई

 

1. संघर्ष 

नेपथ्य में सूरज था 

उसके रश्मि शर थे 

मेरी तरकश में 

और मेरी परछाई का कद 

मुझसे भी बड़ा हो गया 

तब जाके मैं “सदैव धावक “

कुछ क्षण के लिए 

सांस लेने को 

ऊपर जाती चोटी 

के नीचे खड़ा हो गया.

फ़िर ख्याल आया 

कि मैं रुक कैसे गया 

नदी भेजती चोटी 

के तले झुक कैसे गया.

इन भीगी बाहों को ही पकड़ना है 

अपने भीतर भागते धावक को 

मन और तन से जकड़ना है 

इस सर्वोपरि नभ का भी कोई व्योम होगा 

वहां कैसी धूप होगी, कैसी शाम होगी.

बहुत दिन हुए कोई सांझ देखे हुए 

तेरे संग ज़मीन पे चले हुए ज़िन्दगी, खैर!

वो भी जीवन था 

जब हम मेहज़ हम थे,

और वो भी बहुत था, हम ही अहम् था 

किसी बुलबुले में क़ैद सांस को ढूँढ़ते 

हमने समुन्द्र के तट पे ही 

उसकी आँखों में ही कई सतरंगी सपने देखे 

बिना किसी संघर्ष नाद के,

 रेत के सिरहाने पर सर रखकर 

हर शंख में पाताल के समुन्द्र को सुना 

आसमान और पाताल के बीच 

कहीं किसी तट पर सिर्फ स्थिर रहकर 

अरे हाँ! गन्तव्य तो सिर्फ हम ही थे 

और हमें कहीं नहीं जाना था.

सिर्फ खुली हवा की कश्ती 

मुठ्ठी भर मस्ती 

ना गहराई का भय 

वैसे वो भी रत्न जड़ित थी 

ना ऊंचाई की मेहत्वकांक्षा 

तारे, चाँद और सूरज तो 

हर जगह से दिखते थे 

छोटे मोटे ख्वाब 

और छोटे मोटे हम.


2. खेद 

( विपरीत तुक बंदी )

गुम है मन का मछुआरा किसी मरुस्थल में 

लहर है रेत की,कश्ती की चाह बटोरता इक बुलबुला भर पर 

तुम सतह से तो स्वर्णिम धूप  के प्रतिबिम्ब हो 

पर सहर से निशा तक गहराई में तक सिर्फ तर.

मोती है गहरे,आँखों से रिस्ते निरंतर  मन ही मन 

खीँचता चिंता का हल माथे पर शिकन और सींचता

होती है फ़िर दर्द की बेरहम तिल तिल बुआई 

भींचता दिन और रात को भागता हुआ समय आंख मीँचता.


3. न्याय 

ज्वार भाटा है अब सांझ में उफान पर 

तुम बस कश्ती को मेरे तट पर ले आओ 

ऊंचा था सूरज जो वो देखो डूबने वाला है 

अब तक हाशिये पर छिपी श्वेत बुज़ुर्गीयत 

अब ये झुर्रियाँ भरती चांदनी बन के बिखरने को है 

किसी छोर पर प्रभामण्डल का पतन  है 

किसी छोर पर रूपहली गठरी खुल गयी है 

रात की चादर में फ़िर कोई ना ऊँचा दिखा 

सब क़ब्र एक ही रूह हुई 

अलग अलग ऊंचाई समझी थी जो 

वो समतल ही महसूस हुई 

11.2.23

15.54 hrs